यह कैसा लोकतंत्र है?
भारतीय जनता पार्टी को अतीत में कही अपनी ही यह अवश्य याद रखनी चाहिए कि देश के मतदाताओं ने सरकार और संसद को चलाने की जिम्मेदारी उसके कंधों पर डाली है। संसद अपेक्षित गरिमा के साथ चले, इसे सुनिश्चित करना उसका दायित्व है। संसद के बजट सत्र के दूसरे चरण का पहला ही दिन खराब संकेत दे गया। पहले चरण में विपक्ष अडानी प्रकरण को लेकर आक्रामक रहा था। सत्ता पक्ष को अंदाजा रहा होगा कि विपक्ष इस सिलसिले को जारी रख सकता है। मीडिया में ऐसी सुर्खियां भी भरी पड़ी थीं कि विपक्षी नेताओं के खिलाफ केंद्रीय एजेंसियों की कार्रवाई से विपक्षी दल गुस्से में हैं और वे एकजुट होकर इस मुद्दे को सदन में उठाएंगे। जाहिर है, यह भी टकराव का एक मसला है। तो विपक्ष के इन संभावित हमलों के खिलाफ सत्ता पक्ष ने जवाबी रणनीति अपना ली।
दोनों सदनों की बैठक शुरू होते ही सत्ता पक्ष लंदन में दिए राहुल गांधी के भाषणों को लेकर न सिर्फ हमलावर हो गया। राज्यसभा में खुद सदन के नेता ने राहुल गांधी को निशाने पर लिया- जबकि संसदीय मर्यादा के तहत दूसरे सदन के सदस्य की बातों पर अन्य सदन में चर्चा नहीं होनी चाहिए। इससे लेकर गरमाहट बढ़ी और सदन में कोई काम की बात नहीं हो सकी। अब चूंकि दोनों पक्षों के बीच विवाद इतना तीखा और अविश्वास की खाई इतनी चौड़ी हो चुकी है, इस सत्र में कोई सार्थक बात होगी, इसकी संभावना कम ही लगती है।
यह एक दुर्भाग्यपूर्ण स्थिति है। लोकतंत्र में संसद को सर्वोच्च मंच कहा जाता है। हालांकि अब यह आशंका पुरानी हो चुकी है, मगर यह याद दिलाते रहने की जरूरत है कि अगर अगर यह मंच अपनी साख खो दे, तो फिर लोकतंत्र का कोई अर्थ नहीं बचेगा। भारतीय जनता पार्टी को अतीत में कही अपनी ही यह अवश्य याद रखनी चाहिए कि देश के मतदाताओं ने सरकार और संसद को चलाने की जिम्मेदारी उसके कंधों पर डाली है। संसद अपेक्षित गरिमा के साथ चले, इसे सुनिश्चित करना उसका दायित्व है। अब पानी चूंकि सिर के ऊपर से गुजर रहा है, इसलिए यह याद दिलाना भी जरूरी हो गया है कि अगर सत्ता पक्ष अपने इस दायित्व को निभाने में विफल रहा, तो देश का एक बड़ा जनमत राज्यसभा में विपक्ष के नेता मल्लिकार्जुन खडग़े की इस टिप्पणी से सहमति रखने लगेगा कि मोदी राज में लोकतंत्र नहीं है।